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##11सितम्बर पुण्यतिथि पर विशेष##  यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है मुक्तिबोध

गजानन माधव मुक्तिबोध

11सितम्बर पुण्यतिथि पर विशेष

पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है मुक्तिबोध।

अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब ।

गणेश कछवाहा*

गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर 1917 – 11 सितंबर 1964) 20वीं सदी के सबसे प्रमुख हिंदी कवियों, निबंधकारों, साहित्यिक और राजनीतिक आलोचकों और कथा लेखकों में से एक थे। मुक्तिबोध को सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साथ भारत में आधुनिक हिंदी कविता का अग्रदूत माना जाता है।
मुक्तिबोध के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसमें युग की नई चेतना नये रूप में अभिव्यक्त हुई है वह भी नई काव्य भाषा में। जिसमें चेतना और भावना के विद्रोह के साथ भाषा का विद्रोह भी मिलता है। … मुहावरे, लोकोक्तियों का प्रयोग भी उनकी काव्य भाषा में हुआ।
गजानन माधव मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य के ऐसे कवि हैं जिन्होंने छायावाद से काव्य रचनाएं आरम्भ की और प्रगतिवाद, प्रयोगवाद व नई कविता की युगधाराओं से जुड़ते हुए काव्य में ऐसी काव्य भाषा और शिल्प का प्रयोग किया।
मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता उनकी राजनीतिक विचारधारा को भी परिलक्षित करती है। उन पर मार्क्सवाद की विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। इसलिये नई कविता आंदोलन के वे प्रमुख कवि भी हैं। हालाँकि मुक्तिबोध के जीवनकाल में उनका कोई स्वतंत्र काव्य संग्रह न प्रकशित हो सका।

मुक्तिबोध काव्य को दो प्रकार का मानते हैं- यथार्थवादी और भाववादी या रूमानी। उनके अनुसार, ”कलाकृति स्वानुभूत जीवन की कल्पना द्वारा पुनर्रचना है। यथार्थवादी शिल्प के अन्तर्गत, कलाकृति यथार्थ के अन्तर्नियमों के अनुसार यथार्थ के बिम्बों की क्रमिक रचना प्रस्तुत करती है किन्तु भाववादी रोमांटिक शिल्प के अन्तर्गत कल्पना अधिक स्वतन्त्र होकर जीवन की स्वानुभूत विशेषताओं को समष्टि चित्रों द्वारा, प्रतीक चित्रों द्वारा प्रस्तुत करती है।

मुक्तिबोध वस्तुतः जीवन दर्शन ,व्यवस्था की विसंगतियों और सामाजिक चेतना से साक्षात्कार करते हुए जीवन के मुक्ति का मार्ग तलाशते हैं।यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है मुक्तिबोध.

पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? हिन्दी के शिखर कवि गजानन माधव मुक्तिबोध अकसर सवाल के रूप में ये खरा जुमला उछालते थे। अपनी कविताओं से झिंझोड़कर रख देने वाले मुक्तिबोध का यह सवाल बीते साठ साल से अपना जवाब तलाश रहा है। वैसे तो यह सवाल सभी आम और खास से है।

संक्षिप्त जीवन वृत्त –
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर, 1917 को रात 02 बजे श्योपुर मध्यप्रदेश में माधवराव-पार्वती दंपत्ति के घर हुआ। पूरा नाम रखा गया- गजानन माधव मुक्तिबोध। माता-पिता की तीसरी संतान थे। उनसे पहले के दोनों शिशु अधिक जीवित नहीं रह सके थे। इस कारण मुक्तिबोध के लालन-पालन और देख-भाल पर अधिक ध्यान दिया गया। उन्हें खूब स्नेह और ठाठ मिला। शाम को उन्हें बाबागाड़ी में हवा खिलाने के लिए बाहर ले जाता। सात-आठ की उम्र तक अर्दली ही उन्हें कपड़े पहनाते थे। उनकी सभी ज़रूरतो का ध्यान रखा जाता रहा, उनकी हर माँग पूरी की जाती रही। उन्हें घर में ‘बाबूसाहब’ कहकर पुकारा जाता था। वे परीक्षा में सफल होते तो घर में उत्सव मनाया जाता था। इस अतिरिक्त लाड़-प्यार और राजसी ठाट-बाट में पला बसा।
पिता इंस्पेक्टर पद से उज्जैन में सेवानिवृत्त हुए। जब रिटायर हुए तब आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं थे। वे न्यायनिष्ठ एवं ईमान पसंद शख्शियत के लिए प्रसिद्ध थे। लाड प्यार से पले मुक्तिबोध को आर्थिक संकट से जूझना पड़ा।जिससे जीवन के यथार्थ को बहुत नजदीक से जाने बुझे और समझे।
17 फरवरी 1964 को अकस्मात पक्षाघात हुआ और अन्ततः 11सितम्बर 1964 को प्राण त्याग दिए।

शिक्षा –
इनके पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे। अक्सर उनका तबादला होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी तथा आर्थिक तंगी से भी दो चार होना पड़ता था। प्रारम्भिक शिक्षा उज्जैन में हुई । 1938 में बी ए पासकर उज्जैन के मार्डन स्कूल में अध्यापक हो गए। है। 1954 में एम ए करने के बाद राजनांद गांव छत्तीसगढ़ (अविभाजित मध्यप्रदेश) के दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए। इस जीवन यात्रा में जीवन की वास्तविकता,व्यवस्था,राजनीति और सामाजिक सरोकार ने उनके जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। जो उनकी लेखनी में स्पष्ट रूप से मुखर होकर सामने आई। राजनांद गांव उनका केवल अध्यापन क्षेत्र ही नहीं रहा वरन् अध्ययन और लेखन की भूमि भी रही। जहां से मुक्तिबोध ने राष्ट्रीय साहित्यक क्षितिज में नई चेतना के साथ दस्तक दी।

साहित्यिक जीवन–
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार ‘तार सप्तक’ के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशि‍त की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशि‍त हुआ। ज्ञानपीठ ने ही ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ प्रकाशि‍त किया था। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्‍वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ को प्रकाशि‍त किया था। परवर्ती वर्षो में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन ‘काठ का सपना’, तथा ‘विपात्र’ (लघु उपन्यास) प्रकाशि‍त हुए। पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद, 1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन ‘भूरी भूर खाक धूल’ प्रकाशि‍त हुआ और 1985 में ‘राजकमल’ से पेपरबैक में छ: खंडों में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ प्रकाशि‍त हुई, वह हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है। कविता के साथ-साथ, कविता विषयक चिंतन और आलोचना पद्धति को विकसित और समृद्ध करने में भी मुक्तिबोध का योगदान अन्यतम है। उनके चिंतन परक ग्रंथ हैं- एक साहित्यिक की डायरी, नयी कविता का आत्मसंघर्ष और नये साहित्य का सौंदर्य शास्त्र। भारत का इतिहास और संस्कृति इतिहास लिखी गई उनकी पुस्तक है। काठ का सपना तथा सतह से उठता आदमी उनके कहानी संग्रह हैं तथा विपात्रा उपन्यास है। उन्होंने ‘वसुधा’, ‘नया खून’ आदि पत्रों में संपादन-सहयोग भी किया।

प्रमुख लेखन —
कहानी ,कविता,निबंध,आलोचना,इतिहास और कविता संग्रह।
चांद का मुंह टेढ़ा है, भूरी भूरी ख़ाक धूल तथा तार सप्तक रचनाएं प्रकाशित,मुक्तिबोध रचनावली सात खण्ड ‘अँधेरे में’,काठ का सपना,क्‍लॉड ईथरली,जंक्‍शन,पक्षी और दीमक,प्रश्न,ब्रह्मराक्षस का शिष्य,लेखन,विपात्र सौन्‍दर्य के उपासक,एक साहित्यक डायरी, भारत इतिहास और संस्कृति आदि।

पाठकों के लिए कवितायें —

“अँधेरे में ” के कुछ अंश गजानन माधव मुक्तिबोध

अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब ।
पहुँचाना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने को मिलेंगी बाँहें
जिनमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक।
……..
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झांक-झाँककर देखता हूँ हर चेहरा
प्रत्येक गतिविधि,
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय-स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!
………
खोजता हूँ पठार …पहाड़ …समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा!


“चांद का मुंह टेढ़ा है”, यह शीर्षक ही काफी है।अभिव्यक्ति को सीधा ,सरल और सहज बनाने के साथ ही प्रखर बनाता है।
“चांद का मुंह टेढ़ा है” की कुछ पंक्तियां –
नगर के बीचों-बीच
आधी रात–अंधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
कारखाना–अहाते के उस पार
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार–चिह्नाकार–मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चांद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं खाली हुए कारतूस ।
गंजे-सिर चांद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे है !!
चांद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है
अंधेरे में, पट्टियाँ ।
देखती है नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह ।

समीप विशालकार
अंधियाले लाल पर
सूनेपन की स्याही में डूबी हुई
चांदनी भी सँवलायी हुई है !!

भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत
मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर
बहते हुए पथरीले नालों की धारा में
धराशायी चांदनी के होंठ काले पड़ गये

हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी–
चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर
टेढ़े-मुँह चांद की ।

बारह का वक़्त है,
भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यन्त्र
शहर में चारों ओर;
ज़माना भी सख्त है !!

अजी, इस मोड़ पर
बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल
अजगरी मेहराब–
मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में
बसी हुई
सड़ी-बुसी बास लिये–
फैली है गली के
मुहाने में चुपचाप ।
लोगों के अरे ! आने-जाने में चुपचाप,
अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप
फड़फड़ाते पक्षियों की बीट–
मानो समय की बीट हो !!
गगन में कर्फ़्यू है,
वृक्षों में बैठे हुए पक्षियों पर करफ़्यू है,
धरती पर किन्तु अजी ! ज़हरीली छिः


अंधेरे से उजाले को तलाशते कवि को समय काल ने 17 फरवरी 1964 को अकस्मात पक्षाघात के आगोश में ले लिया और पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ? इस ज्वलंत सवालों को कहते,पूछते और तलाशते अन्ततः 11सितम्बर 1964 को प्राण त्याग दिए। प्रश्न अनुत्तरित आज भी उसी ऊर्जा और तेवर से खड़ा है और हर शख्स से पूछ रहा है – “पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

गणेश कछवाहा
चिंतक,लेखक एवं समीक्षक
काशीधाम
रायगढ़ छत्तीसगढ़।
9425572284
gp.kachhwaha@gmail.com

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